31 May 2012

ख़ुशी


लाखों चेहरों के बीच भी अजनबी हूँ मैं 
कभी आईने में अपनी छवि को देख सोचती हूँ 
काश आईने की छवि भी हमारे आने पर मुस्कुराती 
शायद एक वजह तो मिलती घर लौट आने को 

हज़ारों की भीड़ में चलती हूँ तन्हा मैं 
कभी रास्ते में पड़ती परछाई को देखती हूँ  
काश परछाइयों की भाषा मैं समझ पाती  
शायद एक साथी तो मिलता साथ निभाने को 

मैं समझती रही शायद परछाई और छवि खुशियों की आगाज़ है 
पर  भूल गई कि दोनों ही तो खुद मेरी खुशियों के मोहताज हैं 

6 comments:

  1. Very nice poem and spelled very nicely..

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  2. khoob, khoob..LC...par meine socha ki thum bindas ho, par yeh poem mujhe achi lagi..khoob kahi...

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  3. This is beautiful, Laxmi! Do write more often... please.

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