लाखों चेहरों के बीच भी अजनबी हूँ मैं
कभी आईने में अपनी छवि को देख सोचती हूँ
काश आईने की छवि भी हमारे आने पर मुस्कुराती
शायद एक वजह तो मिलती घर लौट आने को
हज़ारों की भीड़ में चलती हूँ तन्हा मैं
कभी रास्ते में पड़ती परछाई को देखती हूँ
काश परछाइयों की भाषा मैं समझ पाती
शायद एक साथी तो मिलता साथ निभाने को
मैं समझती रही शायद परछाई और छवि खुशियों की आगाज़ है
पर भूल गई कि दोनों ही तो खुद मेरी खुशियों के मोहताज हैं
Very nice poem and spelled very nicely..
ReplyDeleteThank u
ReplyDeletekhoob, khoob..LC...par meine socha ki thum bindas ho, par yeh poem mujhe achi lagi..khoob kahi...
ReplyDeleteThanks Sreeja
ReplyDeleteThis is beautiful, Laxmi! Do write more often... please.
ReplyDeleteDeep thinking...
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