मैं सोचूँ भी तो क्या सोचूँ
मैं सोचूँ भी तो क्या सोचूँ , ज़िन्दगी हर पल इक नया रूप दिखाती है
कभी अतीत के ज़ख्मों से लथपथ , कभी आने वाले कल के उजाले में जगमगाती है
मैं सोचूँ भी तो क्या सोचूँ , ज़िन्दगी हर पल इक नया रूप दिखाती है
सब पूछते है कि आगे का क्या सोचा है तुमने,
अपनी कल्पनाओं में आने वाले पल में क्या देखा है तुमने,
कैसे बताएँ सबको कि चलती तो हूँ मैं अरमानों कि ओट में,
पर उन उजड़े हुए सपनों की चीख अब भी दिल को दहला जाती है
कभी अँधेरे के सितारों कि तरह, कभी बुझते हुए दिये सी नज़र आती है
मैं सोचूँ भी तो क्या सोचूँ , ज़िन्दगी हर पल इक नया रूप दिखाती है
सब पूछते हैं की थक तो नहीं गयी तुम चलते चलते
कहीं ज़िन्दगी यूँ ही न बीत जाएगी ढलते ढलते
कैसे बताये सबको कि उम्मीद तो अब भी नहीं छोड़ी है मैंने,
पर ज़िन्दगी कि लुका छुपी कभी कभी बहुत डराती है
कभी काँटों की तरह चुभती है , कभी नाज़ुक काली सी मुस्कुराती है
मैं सोचूँ भी तो क्या सोचूँ , ज़िन्दगी हर पल इक नया रूप दिखाती है
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