ये सिलसिला
अभी कुछ रोज़ पहले तो मुस्कुराहटों को अपनाया था तुमने
अभी कुछ रोज़ पहले तो अतीत को भुलाया था तुमने
फिर इन गाड़ियों की भीड़ में, इन लोगों के शोर में
ये कैसा तन्हाई का सिलसिला है
ये हवा में लहलहाते हुए पेड़ पूछते हैं मुझसे
अभी कुछ रोज़ दिन पहले तो उड़ान दी थी सपनों को तुमने
अभी कुछ रोज़ पहले तो फिर अपनाया था अपनों को तुमने
फिर आज इस खुशियों के इस ठिकाने में, रात के इस शामियाने में
ये कैसा आंसुओं का ज़लज़ला है.
ये अँधेरे रास्तों पर टिमटिमाती रौशनी पूछती है मुझसे
अभी कुछ रोज़ पहले तो जगमगाना सीखा था तुमने
अभी कुछ रोज़ पहले तो झिलमिलाना सीखा था तुमने
फिर महकी सी इन हवाओं में, खामोश सी इन फिजाओं में
कैसा ये उदासी का कहकहा है.
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